Hindi poem on Yoga.

 

50 चलने दे तू योग धारा बह जा समृद्ध पहाड़ से इधर उधर क्या ईश्वर ढूंढ़े छिपा है तेरे आप में बह चलेगी योग धारा दूर जाएगी दिक़्क़ते मन भी स्वत्छता पायेगा नाश होगा अवसाद का, निरोगी तू होजायेगा क्यों तू गुम है माया जाल में अंत काल पछतायेगा प्रति दिन तू योग चुन लें स्वचालित आनंद आएगा स्वास्थ्य तेरे हाथ में है स्वस्थ भी तू आप है कर्म तेरे प्रतिबिंब है जो चीख कर आगे आएंगे चलने दे तू योग धारा जल से ! ये बह जायेंगे वाणी तेरी प्रक्षेपक हैं फूक फूक कर रख कदम जब भी कहना सत्य कहना खुद से कर ले तू वचन योग धारा बेहेने दे तू कर चलेगी जो निडर
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